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तर्क

रिश्तों को तोड़ने मे बहुत कम समय लगता है ; शायद एक पल या एक छोटी सी भूल, और कभी अकारण भी, जिसका हमे अहसास नही होता । कुछ समय तक क्रोध रहता है, घृणा रहती है और उस विचार को आवेशित करती कुछ बातें । जब तक ये भाव क्षीण होते है, उससे पहले ही अहंकार अपना स्थान बना चुकी होती है । फिर शुरू होता है आत्म मंथन, सही और गलत का, जिसमे अपनी गलती दिखने की सम्भावना बहुत कम होती है, अगर गलती दिख भी गयी तो हमेशा एक प्रश्न बना रहता है - "मैं ही क्यों पहल करूँ?" और कभी संकोच हमारी आवाज़ दबा लेती है । हमे उसकी अच्छाईयों मे कुछ कमियाँ दिखती है और फिर हम अपने आप को समझाते है कि कुछ हद तक 'मैं' सही हूँ ! धीमे धीमे रिश्तों को जोड़ने वाला तत्व जाता रहता है, और एक दिन कहीं राह मे अचानक सामने आ जाने पर आँखें अनायस ही शून्य मे कुछ ढूढ़ने की कोशिश करती है और मष्तिस्क सत्य मानने से इंकार करना चाहता है, पर कहीं कुछ आभास होता है कि ये चेहरा उतना अनजाना भी नही है, जितना दिखता है ।