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कुशीनगर

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इस बार दीपावली का पर्व मना कर अपने गाँव से वापस आते वक़्त कुशीनगर घूमने का विचार हुआ । कुशीनगर महात्मा बुधः का निर्वाण स्थल है । यहाँ परिनिर्वाण स्तूप में बुधः का भब्य मूर्ति है । भारत की अन्य धरोहरः की तरह यहाँ भी लोगों ने अपने विचारों को ईश्वर तक पहुँचाने के लिए लिखित माध्यम  का सहारा लिया है ।

सुंदरता

ईश्वर ने कुछ तो ऐसा सृजित किया होगा, जो शाश्वत है, समय के बंधन से मुक्त हो? - सुंदरता और प्रेम ! प्रेम को हम एक पल के लिए मानव निर्मित भी मान लें, लेकिन सुंदरता तो परमात्मा ने सृजित की होगी | ईश्वर ने जब सृष्टि का सृजन किया होगा तो यहाँ सुंदरता बिखेरी होगी.. सुंदरता का अनुपम उदाहरण - प्रकृति | पर्वत, नदियों, वृक्ष, पंछी और खुला गगन | तब यहाँ मानव न था | मनु के संतान ने सुंदरता को अपने तरीके से देखने की कोशिश की | उसने वही किया जो उसे अच्छा लगता था, जो वो अपने स्वार्थ के लिए चाहता था | उसने प्रकृति को अपने तरीके से सजाने की कोशिश कीं.. उसने सुंदरता को सीमित करना प्रारम्भ कर दिया | प्रत्येक मनुष्य अलग था, उसकी पसंद अलग थी, उसकी ज़रूरते अलग थी | सुंदरता कभी विस्तृत हुआ करती थी जो अब क्यारियों तक ही सीमित रह गयी है और किसी के घर की शोभा बढ़ाती है !

तर्क

रिश्तों को तोड़ने मे बहुत कम समय लगता है ; शायद एक पल या एक छोटी सी भूल, और कभी अकारण भी, जिसका हमे अहसास नही होता । कुछ समय तक क्रोध रहता है, घृणा रहती है और उस विचार को आवेशित करती कुछ बातें । जब तक ये भाव क्षीण होते है, उससे पहले ही अहंकार अपना स्थान बना चुकी होती है । फिर शुरू होता है आत्म मंथन, सही और गलत का, जिसमे अपनी गलती दिखने की सम्भावना बहुत कम होती है, अगर गलती दिख भी गयी तो हमेशा एक प्रश्न बना रहता है - "मैं ही क्यों पहल करूँ?" और कभी संकोच हमारी आवाज़ दबा लेती है । हमे उसकी अच्छाईयों मे कुछ कमियाँ दिखती है और फिर हम अपने आप को समझाते है कि कुछ हद तक 'मैं' सही हूँ ! धीमे धीमे रिश्तों को जोड़ने वाला तत्व जाता रहता है, और एक दिन कहीं राह मे अचानक सामने आ जाने पर आँखें अनायस ही शून्य मे कुछ ढूढ़ने की कोशिश करती है और मष्तिस्क सत्य मानने से इंकार करना चाहता है, पर कहीं कुछ आभास होता है कि ये चेहरा उतना अनजाना भी नही है, जितना दिखता है ।

समय

हम अपनी ज़िंदगी मे समय का इंतजार करते रहते हैं कि वो आये और हमारी दुनिया ख़ुशियों से भर दे । वो आता है और चला भी जाता है और हम वहीं खड़े मूक बने देखते रहते है, फिर एक र्निजीव सा भाव हमे बाध्य करता है, रोने के लिये, अपने आप पे, अपने भाग्य पर ।